मुसीबत दे रही दस्तक बराबर
करेगी वार क़ुदरत भी पलटकर,
अगर पेड़ों को काटोगे निरंतर.
तुम्हारी ज़िन्दगी जिस पर है निर्भर,
उसी को काटते रहते हो अक्सर.
अभी भी हो रहा पृथ्वी का दोहन,
पचासों ज़लज़ले झेले भयंकर.
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
कि जंगल काटकर बनने लगे घर.
हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
'कुँवर' पानी का लेवल घट रहा है,
हैं खतरे में पड़े दरिया,समन्दर.
***********
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
nasamjhi ? kitna khatarnaak kadam hai , bas paise kamane ki hod me
प्रकृति के प्रति आपका प्रेम.. पर्यावरण के प्रति आपकी चिंता... पृथ्वी के प्रति आपकी जिम्मेदारी का बोध... एक सजग प्रहरी के रूप में आपकी कविता जागृति के रूप में कार्य कर रही है... जैसा कबीर... रहीम आदि करते थे...
ReplyDeleteये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
प्रकृति के प्रति एक संदेशपरक रचना। इसके लिये आभार कुँवर साहब।
कुसुमेश जी,
ReplyDeleteआपका पर्यावरण प्रेम स्तुत्य है। सम्पूर्ण पृथ्वी-मात्र की शुभकामनाएं और दुआएं आपके साथ है प्रकृति-मित्र!!
अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति पर अत्याचार किया जाता है और उनके परिणामों के बारे में कोई नहीं सोचता।
ReplyDeleteबहुत ही विचारोत्तेजक ग़ज़ल। कुछ शे’र शेयर करने का मन बन गया
प्रकृति ने भाषा बदल दी व्याकरण खतरे में है,
आदमी ख़तरे में है, पर्यावरण ख़तरे में है।
रह रहे हैं लोग अब ख़ुद की बनी भूगोल में,
सिर्फ़ दर्पण ही नहीं अन्तःकरण ख़तरे में है।
***
घने दरख़्त के नीचे मुझे लगा अक्सर
कोई बुज़ुर्ग मिरे सर पर हाथ रखता है।
***
तुम तैश में आकर जो इन्हें काट रहे हो,
जब सर पे धूप होगी शज़र याद आएंगे।
अभी भी हो रहा पृथ्वी का दोहन,
ReplyDeleteपचासों ज़लज़ले झेले भयंकर।
प्रकृति के कार्यों में मानव की दखलंदाजी़ का असर साफ दिखने लगा है।
सार्थक संदेश देती अच्छी ग़ज़ल।
नासमझी नही ये जानबुझ कर किया जाने वाला कृत्य है।
ReplyDeletebahut sarthak rachna .
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर
संदेश देती अच्छी ग़ज़ल....
सवाल यह नहीं है कि क्या हुआ है और क्या गलत हो रहा है..
ReplyDeleteसवाल यह है कि आप क्या कर रहे हैं..
अगर आप सही मायनों में इसके लिए कुछ कर रहे हैं तो यह पोस्ट सही में सार्थक है और उसके लिए बधाई अन्यथा फिर से विचार करने की ज़रूरत है..
आभार
पर्यावरण पर सार्थक चिंतन . अच्छी कविता. आभार.
ReplyDeleteचेतावनी देती सुन्दर गज़ल ..
ReplyDeletebilkul sahi chetavni de rahi hai apki kavita
ReplyDeleteतुम्हारी ज़िन्दगी जिस पर है निर्भर,
ReplyDeleteउसी को काटते रहते हो अक्सर.
बहुत सुंदर .....पर्यावरण के प्रति जागरूक ...और कर्तव्यों के प्रति सचेत करती पंक्तियाँ......
लेकिन यह मुर्ख इंसान इसे समझता कहां हे,
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, धन्यवाद
हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
'कुँवर' पानी का लेवल घट रहा है,
हैं खतरे में पड़े दरिया,समन्दर.
...sundar jaagruktabhari aur prerak prastuti ke liye aabhar
sir ji namaskar
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
'कुँवर' पानी का लेवल घट रहा है,
हैं खतरे में पड़े दरिया,समन्दर.
bahut hi sarthak sandesh
बेहद सुन्दर पर्यावरण को खतरा देने वालो को एक चेतावनी देती यह कविता; जब पेड़ ही नही रहेगे तो इस सर्ष्टि का क्या होगा यह क्यों नही सोचते पेड़ काटने वाले ?
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
पेड़ नहीं तो कुछ नहीं....बहुत सही विषय चुना है आपने....
ReplyDeleteप्रणाम.
आप कई बार पर्यावरण पर लिखते हैं ... आपकी यह रचना एक कोशिश है समाज में जागरूकता फ़ैलाने की ... बहुत सार्थक सन्देश !
ReplyDeleteअभी भी हो रहा पृथ्वी का दोहन,
ReplyDeleteपचासों ज़लज़ले झेले भयंकर.
आदमी इतनी आसानी से कब मानने वाला है। सार्थक सन्देश देती रचना के लिये बधाई आपको।
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
जब धरा ही नहीं रही तो क्या रहेगा घर???
पृथ्वी के प्रति आपकी जिम्मेदारी और चिंता को दर्शाती रचना एक सजग प्रहरी के रूप में जागृति का कार्य कर रही है.. ये कर्त्तव्य तो इस वसुंधरा पर रहने वाले हर इन्सान का है ...संदेशपरक रचना.
सार्थक चेतावनी है.लोगों को सम्हालना चाहिए.
ReplyDeleteलाभप्रद चेतावनी !
ReplyDeletesahi kaha aapne......
ReplyDelete"हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर."
abhi bhi na samjhe to kab.....???
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
sahi bilkul ,apni baraadi ki taraf badh rahe hai ,tabhi nasamjhi kar rahe hai .sundar ati sundar .
यथार्थ का चित्रण कराती कविता संदेश भी दे रही है ना जाने मानव कब समझेगा।
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
पर्यावरण की समस्या बढती जा रही है ... जंगल कटते जा रहे हैं ...
सही हालात को बयान किया है शेरों मों ..
सच ही तो है अपनी सुविधा के लिए हम लगातार जंगल काटते जा रहे हैं और पर्यावरण की समस्या बढ़ती जा रही है...अभी भी समय है अगर अब भी कोई कदम न उठाया तो आने वाले समय में समस्या का भयावह
ReplyDeleteरूप सामने आएगा...
सार्थक रचना....बधाई...
तुम्हारी ज़िन्दगी जिस पर है निर्भर,
ReplyDeleteउसी को काटते रहते हो अक्सर. एक दम सही कहा आपने , काश मानव इसे समझ पाता
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
अच्छी ग़ज़ल....
पर्यावरण जैसे ज़रूरी विषय पर आपका लेखन सार्थक है....बधाई...
मेरे ब्लोग पर आने का शुक्रिया ! हां तारीख २०/०२ कि जगह २६/२ कैसे आया मैं भी नहीण समझा ! मैने पोस्त अपडेट जरूर की थी पोस्ट ! पर ऐसे कैसे हुआ ? खैर इसे २०/०२ कर दिया है ! ध्यान आकृष्ट करने के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteप्रकृति प्रेम आपकी गजलोँ मेँ बहुत अच्छा लगता है । पर्यावरण के प्रति चेतावनी देती आपकी गजल बहुत ही लाजबाव है । पर्यावरण को शुद्ध बनाने के लिए पेड़ोँ को बचाना लाजमी है । आभार बावू जी ।
ReplyDelete"सितारा कहूँ क्यूँ ? चाँद है तू मेरा........गजल "
पर्यावरण के लिए जागरूक करती एक सार्थक रचना । आज पुनः जरूरत है - " चिपको आन्दोलन ' की । हरित क्रांति लाने के लिए ।
ReplyDeleteआद. कुसुमेश जी,
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर
आपकी हर रचना समाज के सरोकारों से जुडी होती है !
काश हमारी आँखें खुल जातीं !
हर शेर विचारों में मंथन पैदा कर रहा है !
पूरी ग़ज़ल संग्रहणीय है
खूबसूरत जागरूकतापूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
प्रकृति संरक्षण के भावों को संप्रेषित करती हुई आपकी ग़ज़ल अद्वितीय लगी ...
आपकी कलम में तो जादू है कुँवर जी...
बेहद्द खूबसूरत...!!
हमेशा की तरह दिल में उतर जाने वाले शेर। बधाई।
ReplyDelete---------
कैसी होगी भविष्य की दुनिया।
अद्भुत रहस्य : कहां गये वे लोग ?
तुम्हारी ज़िन्दगी जिस पर है निर्भर,
ReplyDeleteउसी को काटते रहते हो अक्सर.
.............................................
ये पंक्तिया प्रकृति और जीवन दोनों पर सटीक बैठती है..
मनभावन पंक्तिया...
Ashutosh
http://ashu2aug.blogspot.com
http://ashutoshnathtiwari.blogspot.com
आदरणीय कुसुमेश जी,
ReplyDeleteनमस्कार !
पर्यावरण के लिए जागरूक करती एक सार्थक रचना
पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी और चिंता को दर्शाती रचना
ReplyDeleteप्रकृति के बचाव के लिए आवाज़ लगाती एक दर्द भरी रचना जिसमे सच में उस एहसास को बखूबी निभाया |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
पर्यावरण को लेकर आपकी चिंता जायज़ है...बहुत ख़ूबसूरती से आपने दिल की बात कही है...बेहतरीन सार्थक रचना...बधाई
ReplyDeleteनीरज
"हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर."
प्रकृति से दूर होने के खतरे से आगाह कराती गजल.
आदरणीय आपका तजुर्बा झलक रहा है आप की इस गजल से| नमन| मेरा एक शे'र आप के सम्मान में:-
ReplyDeleteअपनी बपौती जान कर काटो न पेड़ों को
इन पेड़ों में कुछ जन्तुओं की बस्तियां भी हैं
sir bahut sunder he ye rachna
ReplyDeletebar bar padhkar bhi
har bar kuch na kuch sikh mil jati he
प्रकृति और पर्यावरण के प्रति
ReplyDeleteआपके भरपूर मनोभाव को
प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करती हुई
शानदार और यादगार रचना ....
"हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर"
अति उत्तम !!
प्रकृति के प्रति बहुत की प्रभावोत्पाअदक, समस्याओं को उजागर करती हुई, भविष्य की भयंकरता को बताती हुइ कविता
ReplyDeleteकलरव- http://mukeshmishrajnu.blogspot.com
नवांकुर- http://www.mukeshscssjnu.blogspot.com
हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
--
बहुत ही प्रेरणादायी गजल!
bahut predna deti hue rachna hai aapki
ReplyDelete.
@ जनाब कुंवर साहब ! आपके लेख का शीर्षक देखा तो मैंने मन बनाया था कि आज कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी की बदबख़्तियों पर कुछ लिखूंगा लेकिन आपकी पोस्ट देखी तो पता चला कि उससे भी ज्यादा संगदिल लोग मौजूद हैं । हक़ीक़त में उन्हें नेकी और बदी की तमीज़ ही नहीं है ।
ReplyDeleteएक आमंत्रण सबके लिए
क्या आप हिंदी ब्लागर्स फोरम इंटरनेशनल के सदस्य बनना पसंद फ़रमाएंगे ?
अगर हॉ तो अपनी email ID भेज दीजिए ।
eshvani@gmail.com
धन्यवाद !
'कुँवर' पानी का लेवल घट रहा है,
ReplyDeleteहैं खतरे में पड़े दरिया,समन्दर.
आपका ये शेर पढ़कर मुझे जसवीर राणा जी की कहानी ''डार्क ज़ोन''याद आ गई ...जो मेरे अनुवाद ब्लॉग पे है ....
पानी की इस कमी को भयंकर ढंग से प्रस्तुत किया है उन्होंने .....
चेताने वाली ग़ज़ल है आपकी ....
बहुत शानदार .....
अति उत्तम ,प्रेरणादायी..सार्थक रचना...बधाई
ReplyDeleteहमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
ReplyDeleteमुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
पर्यावरण के प्रति जागरूक करती रचना.
बहुत ही सार्थक प्रयास.
पता नहीं हम कब जागेंगे.
सलाम.
सार्थक चिंतन, ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरणा देती कविता.
ReplyDeleteआदरणीय कुंवर कुसुमेश जी
ReplyDeleteसस्नेहाभिवादन !
शहर से बाहर कविसम्मेलन में जाने तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण आपकी यह ख़ूबसूरत रचना विलंब से पढ़ रहा हूं …
आशा है , क्षमा करेंगे ।
करेगी वार क़ुदरत भी पलटकर
अगर पेड़ों को काटोगे निरंतर
पर्यावरण के प्रति जागरुकता को समर्पित अच्छी मुसलसल ग़ज़ल है , बधाई !
किसी भी विषय पर छंदबद्ध काव्य सृजन हेतु
जाल पर कविता लिखने में रुचि रखने वालों को आपसे भी प्रेरणा लेनी चाहिए ।
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
भाई कुशमेश जी बहुत ही बेहतरीन गजल पढ़ने को मिली |आपको बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबिल्कुल सत्य लिखा है आपने। प्रस्तुति बढ़िया लगी। पर्यावरण के प्रति लोगों को संवेदनशील होना ही चाहिए। स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है।
ReplyDeleteआदरणीय कुंवर कुसुमेश जी
ReplyDeleteसही लिखा है आपने।
नासमझी नही ये जानबुझ कर किया जाने वाला कृत्य है। प्रस्तुति बढ़िया लगी।
ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरणा देती कविता| धन्यवाद|
ReplyDeleteप्रकृति के साथ खिलवाड़ होगा तो पलटवार के लिय एतो तैयार रहना ही होगा ना . काश हम ये समझ जाएँ . अभी भी समय है .
ReplyDeleteये नासमझी नहीं तो और क्या है,
ReplyDeleteकि जंगल काटकर बनने लगे घर.
हमीं बहरे हुए सुनते नहीं हैं,
मुसीबत दे रही दस्तक बराबर.
'कुँवर' पानी का लेवल घट रहा है,
हैं खतरे में पड़े दरिया,समन्दर.
नि:शब्द ,आपको अब तक पढने से मरहूम रहे ये बदकिस्मती है अपनी
बहुत दिन बाद कुछ सागर जैसा गहरा पढने को मिला
bahut sunder ........
ReplyDeleteइस तरह संन्देश देना हर किसी के बस की बात नही अच्छी रचना है ...
ReplyDelete