हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक
कुँवर कुसुमेश
मसर्रत के लिबासों में छिपे वल्लाह ग़म निकले,
किताबे-ज़िंदगी में तह-ब-तह रंजो-अलम निकले .
गवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
कि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
फ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
*******
मसर्रत=ख़ुशी, दैरो-हरम=मंदिर-मस्जिद, अदब=साहित्य.
बू-ए-सियासत=राजनीति की बू, अहले-क़लम=लिखने वाले.
आदरणीय कुशुमेश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
सटीक और सार्थक प्रस्तुति.व्यवस्था के ऊपर तीखा व्यंग्य छिपा है आपकी अभिव्यक्ति में बहुत बहुत आभार.
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
बहुत गहन ..अर्थपूर्ण ..आज के समय को बयां करती हुई ..उत्तम प्रस्तुति
वाह। हर शेर दाद के काबिल। सीधे दिल में उतरती है।
ReplyDeleteग़ज़ल के शहंशाह की कलम से निकली हुई,
ReplyDeleteबहुत उम्दा नज़्म!
• आप, मानवीय भावनाओं और व्यवहार के विस्तृर दायरे की अच्छी समझ रखते हैं।
ReplyDeleteगवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
कि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
• मामूली सी बात भी आपकी ग़ज़ल में ख़ास हो जाती है।
• यह ग़ज़ल अपने समय को पड़ताल करती है।
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
बहुत बढ़िया ग़ज़ल... इशारों में कही गई बात बहुत गहरी और चिंतनीय है...
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
सच को कहती खूबसूरत गज़ल
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल...
आदरणीय कुशुमेश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
आपका मेरे ब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद
आपका मेरे ब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद आप के ब्लाग पर आकर अच्छा लगा. देर से आने के लिए माफ़ करें. बहुत गहन ..अर्थपूर्ण ..आज के समय को बयां करती हुई ..उत्तम प्रस्तुति.....
आज धर्म भी राजनीति की भेंट चढ़ गयी है बहुत सोचनीय हालात का वर्णन किया है आपने. आखिर हम किस पर विश्वास करें ?
pyari gazal
ReplyDeleteअदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
ReplyDeleteकहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले..
Very nice Ghazal.
.
ग़ज़ल के तमाम अश`आर
ReplyDeleteअपनी बात खुद कह पाने में
कामयाब साबित हो रहे हैं....
अपने आस-पास की खबर रखना
और उसे लेखन में ढाल पाना,,,
आप की खूबी है जनाब !!
गज़ब की लेखनी है भाई जी ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteवाह कुंवर साहब, क्या खूब कहा
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
सच्चाई से रूबरू कराती हुई गज़ल
बहुत सुंदर गजल है !
ReplyDeleteहर पंक्ति लाजवाब ........
बहुत बढ़िया लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
बहुत उम्दा लेखनी .....आज के इंसान ने ईश्वर के घर को भी दूषित कर दिया है .........
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
अब ये जगह काम आती है दहशत फ़ैलाने में
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
.............
बहुत सुन्दर शेर...
यही सत्यता है आज कल के परिवेश में....इबादतगाह में ही बम मिलते हैं...
कुंअर कुसुमेश जी,
ReplyDeleteइबादतगाहों में बम, हथियार मिलने का प्रारंभ बहुत निंदनीय और घृणित मानवीय अपराध की श्रेणी में आता है , हज़ार लानत !
…बहरहाल शायरों के लिए एक ठोस विषय भी ऐसे मज़्हबफ़रोशों की ही देन है
… और अच्छे शे'र कहे हैं आपने …हमेशा की तरह । बधाई !
बहुत बढ़िया ग़ज़ल.शुभकामनायें
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
फ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.bahut hi saarthak aur hakikat se paripoorn gajal hai.bahut hi achcha likhten hain aap.badhaai aapko.
बहुत ख़ूब !!
ReplyDeleteख़ूबसूरत मतला !!!!!!!
बामानी अश’आर !!!!!!
मुकाम्मल और मुरस्सा ग़ज़ल !!!!
गवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
ReplyDeleteकि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
.
बहुत दिन से ब्लोगिंग से दूर था औत वापस आने पे कुछ ऐसा पढने को तलाश रहा था जो दिल को छु जाए. बस यह तलाश यहाँ पे ख़त्म हुई.
सही कह रहे हैं। सच्चाई का अहसास होना ही नई राह की शुरूआत है।
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
सच्ची अच्छी और प्रासंगिक पंक्तियाँ...... बहुत सुंदर रचना
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
ReplyDeleteकहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले..
सच कह दिया है आपने, हमेशा की तरह
लाजवाब, बेमिसाल से आप कहाँ कम निकले...
गवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
ReplyDeleteकि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
सच है यह.
क्या बात है ...बहुत सुन्दर
ReplyDeleteगवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम
ReplyDeleteकि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
काश के चाँद तारे गवाह होते तो कुसूरवार का बचना बहुत मुश्किल हो जाता |
एक शब्द में खनक सुनाई दे रही है |
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति |
ग़ज़ल दिल के करीब लगी , समाज की सच्चाई से रूबरू कराते हुए हर अशआर. खूबसूरत
ReplyDeleteNice gazal kunvar ji.
ReplyDeleteAap bahut sahi kah rahe hain, bahut kam likhne vale hain, jo kuchh naya likh pate hain. Ham to aksar likh ke jab dekhte hain apna likha hua, to pate hain ki ismen hamne naya kya kaha - ye to n jane kitne log n jane kitni martaba pahle hi likh chuke hain.
कुँवर जी,
ReplyDeleteबडी सत्यपरक गज़ल है।
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
bahut sahi kaha.............
H. Bachchan sahab ne bhi kaha tha-bair karaate mandir masjid.................
bas itna samajh me aata hai ki......raam raam, allah allah to sab chillate hain, magar unke bataye raaston par koi nahi chalna chahta..........
"jo dharm ko sahee arthon me padha hota, manzar aaj yun na hota"...........
saarthak rachna!
बहुत ही गहन और सोचपरक गज़ल दिल मे उतर गयी।
ReplyDeleteaapki har ghazal ek sandesh chuppaye hoti hai.bahut umdaa likhte hain aap.bas kya kanhoo taareef ke liye shabd chote pad rahe hain.
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
ग़ालिब की ज़मीन में ग़ज़ल कहने में बड़े-बड़े शायरों को पसीने छूटने लगते हैं और आपने उसमें इतने सामयिक और लाजवाब अशआर कह डाले. कमाल है कुसुमेश जी!..... मुबारक हो!
----देवेंद्र गौतम
आदरणीय कुंवर कुसुमेश जी
ReplyDeleteगवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
कि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले
बहुत बढ़िया ग़ज़ल
आपका आभार
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
...सत्य का बहुत सार्थक और सटीक चित्रण..ख़ूबसूरत गज़ल..
समाज की सच्चाई से रूबरू कराती खूबसूरत ग़ज़ल... आपकी हर रचना बहुत ही अच्छी होती है जैसे तराशा हुआ ताजमहल...
ReplyDeleteबेमिसाल........
मसर्रत के लिबासों में छिपे वल्लाह गम निकले ....
ReplyDeleteअपने वक्त से संवाद करती रु -बा -रु है ग़ज़ल आपकी ।
शुक्रिया इस ट्रीट के लिए .
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
बहुत ही खुबसूरत ख्याल पेश किया है | हर शे'र लासानी है |
इसी बहर में मक्ता लिखा है, भेजने की हिमाकत कर रहा हूँ |
गजल पूरी करने की कोशिश करूँगा , फिर भेजूंगा |
संभल के दोस्ती खुद से, 'शशि' करना, नसीहत है |
तुम्हे जिसकी तमन्ना है, वो शायद तुम में कम निकले ||
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक |
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले ||
बहुत ही खुबसूरत ख्याल पेश किया है | हर शे'र लासानी है |
इसी बहर में मक्ता लिखा है, भेजने की हिमाकत कर रहा हूँ |
गजल पूरी करने की कोशिश करूँगा , फिर भेजूंगा |
संभल के दोस्ती खुद से, 'शशि' करना, नसीहत है |
तुम्हे जिसकी तमन्ना है, वो शायद तुम में कम निकले ||
आदरणीय कुँवर कुसुमेशजी
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
फ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
क्या बात है ...बहुत सुन्दर ग़ज़ल
बेहतरीन अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteहर शेर बहुत उम्दा, बहुत सुंदर रचना । और इसकी भी याद आ गई - बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले । धन्यवाद ।
ReplyDeleteहमेशा की तरह बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक,
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले।
सच्चाई की व्याख्या करती हुई ध्यानाकर्षित करने वाली ग़ज़ल।
हर शेर प्रशंसनीय है।
भाई कुशमेश जी बहुत ही बेहतरीन गज़ल हर शेर लाजवाब बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeletebahut sundar gazal ...aaj pahli baar aapke blog par aai hun .bahut achha lga..
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
वाह बहुत खुब ओर आज का सच जी धन्यवाद
आपने सच कहा साहब कि दो चार ही अहले क़लम निकले
ReplyDeleteबाक़ी कौन निकले बताएं एक तो आप और दूसरे हम निकले
एक उम्दा ग़ज़ल के लिए शुक्रिया !
हिंदुस्तानी इंसाफ़ का काला चेहरा Andha Qanoon
इतना सुन्दर ग़ज़ल लिखा है आपने की तारीफ़ के लिए अलफ़ाज़ कम पर गए! हर एक शेर लाजवाब है! दिल को छू गयी हर एक शेर! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteकुंवर भाई इस बेहतरीन ग़ज़ल के दिली दाद कबूल फरमाएं. हर शेर में आपने सच्चाई को पर्त दर पर्त बड़ी कारीगरी से उधेडा है...वाह...आज के हालात की तर्जुमानी करती हुई इस ग़ज़ल के लिए एक बार फिर से ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.
ReplyDeleteनीरज गोस्वामी
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
बेहतरीन गज़ल और सच्चाई का आइना. बहुत बधाई और शुक्रिया इस शानदार रचना से रूबरू करवाने के लिए.
सर आप के एक - एक अल्फाज अपनी एहमियत वयां कर रहे हैं |
ReplyDeleteआप इन्ही अल्फाजों के जरिये बहुत उम्दा बात कह दिया है ||
KUCHH AISA BHI LIKHEN, KI EK CHINGARI-A-ZALZALA HO JAYE....AISA BAHUT HO GAYA. VAKTA AB KARNE KA JO AA GAYA HAI.
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
क्या बात है कुसुमेश जी ... बेहतरीन ग़ज़ल और लाजवाब हर शेर !
"हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले."
कुशमेस सर, बहुत सही कहा है आपने.तभी तो आज लोगों से कहा जा रहा है कि "ईश्वर -अल्लाह को दिल में बसाओ कि हर-पल साथ रहे तेरा रब,मत ढूंढो कि कहाँ है वो और मिलेगा कब?" काश! हम कबीर को समझ पाते और समय को अपने हिसाब से ढाल पाते.बहुत ही प्रेरणादायी गजल है,सर.
गवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम
ReplyDeleteकि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
हर एक पंक्ति लाजवाब ... अक्षरश: सत्य लिखा है आपने ।
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले...
सच बयानी ... यथार्थ का चित्रण है इस शेर में कुंवर जी ... बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है ...
आद . कुंअर जी,
ReplyDeleteग़ज़ल पढ़ने के बाद काफी देर तक सोचने पर मजबूर हो गया !
गवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
कि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
किस किस शेर की तारीफ़ करूँ ,हर शेर दौरे हाजिर का आईना है ! इस गूंगे दौर में आपकी ग़ज़लों की गूंज आने वाले वक्त की विरासत बन कर महफूज रहेगी !
आजकल थोड़ी व्यस्तता के कारण अनियमित हूँ ,माफ़ करियेगा !
आभार !
सत्य का बहुत सार्थक और सटीक चित्रण|बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है|
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादतगाह कहते थे
ReplyDeleteफसादों की जड़ें लेकर,वही दैरो-हरम निकले
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अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गयी साहब
कहें सच तो 'कुँवर', दो-चार ही अहले-कलम निकले
...........................वाह कुसुमेश जी ! हर शेर उम्दा ....जानदार ग़ज़ल
bahut khub
ReplyDeleteआपकी उत्साह भरी टिप्पणी और हौसला अफजाही के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteआपने सही कहा है-वस्तुतः मंदिर और मस्जिद तो हैं ही फसाद के अड्डे.जो धर्म का -क ख ग भी नहीं जानते उनका ही व्यापार इबादत-खानों से चलता है.
ReplyDeletekushmesh sahab bahut hi achchhi gazal hai.........bilkul sachchai bayan karti hui.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी ग़ज़ल में यथार्थ का चित्रण बहुत गहर| और चिंतनीय है..हर एक पंक्ति लाजवाब है...आभार
ReplyDeleteसर जी ..ये ग़ज़ल इतनी पसंद आई कि समझ नहीं आ रहा मैं किस 'शेर' की तारीफ़ करूँ, और किस 'शेर' को छोड़ दूँ. आपकी इस ग़ज़ल की तारीफ़ में आये सभी कमेंट्स मैं सहमत हूँ. यक़ीन मानिए ये एक गज़ब की ग़ज़ल है. इसके लिए आपको तहेदिल से आभार.
ReplyDeleteमसर्रत के लिबासों में छिपे वल्लाह ग़म निकले,
ReplyDeleteकिताबे-ज़िंदगी में तह-ब-तह रंजो-अलम निकले .
aaj ki tasviro ko bayan karti hai aapki rachna ,laazwaab
उत्कृष्ट रचना ......मैं भी LIC में सहायक पद पर हूँ .मेरे ब्लॉग पर अवश्य आयें......मार्गदर्शन के इंतज़ार में http://kavyana.blogspot.com/
ReplyDeleteexcellent, sir.
ReplyDeletebeautiful.
वल्लाह कुंवरजी...
ReplyDeleteक्या ग़ज़ल लिखी है....!
हर शेर अपनी ही खुशबू से तरोताजा है..!
यथार्थ का चित्रण..कटाक्ष भी एकदम सटीक..!!
हर शेर पर दाद....!!!
पूरी ग़ज़ल खूब है.
ReplyDeleteखासकर यह शेर तो दिल को छू गया ....
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
ढेरों सलाम.
कुंवर जी,केवल राम जी के साथ गलतफहमी दूर कर लीजिये.आप दोनों हमारे लिए बहुत ख़ास हैं.
बेहतरीन गजल। साम्प्रदायिक वैमनस्य पर अच्छा कटाक्ष किया है। आपकी गजल पढ़कर मुनव्वर राना जी का एक शेर याद आ रहा है, 'ये देखकर पतंगें भी हैरान हो गयीं। अब तो छतें भी हिन्दू मुसलमान हो गयीं।''
ReplyDeleteKUCHH AISA BHI LIKHEN, KI EK CHINGARI-A-ZALZALA HO JAYE....AISA BAHUT HO GAYA. VAKTA AB KARNE KA JO AA GAYA HAI.
ReplyDeleteसारी ग़ज़ल में पैनी बातें हैं. मुझे ये पंक्तियाँ बहुत भायीं
ReplyDeleteगवाही के लिए तैयार रहना चाँद तारों तुम,
कि चेहरे पे लिए चेहरा हज़ारो मुहतरम निकले.
वाह....
केवल रामजी के ब्लॉग से आपके ब्लॉग पर आने का पहली दफा मौका मिला.बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति है आपकी.हर शब्द दिल को छूता है.
ReplyDeleteवास्तविकता से तो आप परिचित होंगें ,परन्तु हो सके तो आपसी गिला-शिकवा दूर हो प्रेम और सद्भावना बढे बस यही कामना है.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,आपका हार्दिक स्वागत है.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गयी साहब
ReplyDeleteकहें सच तो 'कुँवर', दो-चार ही अहले-कलम निकले
बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल...
pahli bar aapke blog par aaya hun..bahut achchha lga..
ReplyDeleteसादर नमन आपको.
ReplyDeleteकहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.बिलकुल सही !
ReplyDeleteजिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
कमाल का शेर है...
बेहद शानदार लाजवाब गज़ल ।
टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteआपके नए पोस्ट का इंतज़ार है!
एक बहुत ही बेहतरीन व बेमिसाल रचना !
ReplyDeleteहिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
उसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले.
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
फ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
ये दो शेर विशेष अच्छे लगे ! बहुत बहुत बधाई एवं आभार !
हमारे तो पल्ले ही नहीं पड़ा. पता नहीं लोग बाग इतनी कठिन भाषा किसके लिए लिखते हैं.
ReplyDeleteबेहद शानदार लाजवाब गज़ल ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है.....
ReplyDeleteदिल में घर कर गयी!!
हिफ़ाज़त की नज़र से जो जगह महफ़ूज़ थी कल तक.
ReplyDeleteउसी मंदिर ,उसी मस्जिद में रक्खे आज बम निकले. wah kya baat hai...
sabhee sher ek se bad kar ek hai......tareef karne ke liye alfaz kum padenge.
prashansaneey gazal.
aabhar
जिसे अल्लाह के बन्दे इबादातगाह कहते थे,
ReplyDeleteफ़सादों की जड़े लेकर वही दैरो-हरम निकले.
अदब में भी बड़ी बू-ए-सियासत आ गई साहब,
कहें सच तो 'कुँवर' दो-चार ही अहले-क़लम निकले.
क्या खूब शेर कहें हैं कुंवर साहब! मज़ा आ गया
बहुत ही सुन्दर...लाज़वाब
ReplyDelete