आत्मा से कभी पूछ ले.
कौन-सी राह पर तू चले.
वैध समलैंगिकता हुई,
उफ़ अदालत के ये फैसले.
पश्चिमी तर्ज़ पर देश में,
हल हुए हैं सभी मसअले
ठोकरें-ठोकरें हर क़दम,
ज़िंदगी के यही मर्हले.
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
और पानी से भी हम जले.
*****
मर्हले=पड़ाव/ठहरने का स्थान
मेरे मेल बॉक्स में ये था ...
ReplyDelete@ वैध समलैंगिकता हुई आपकी टिप्पणी के इंतज़ार में.
तो मन म्रें ये विचार आए ..
क्या कहूं, अब तो वैध हो ही गई।
***
छोटी बहर की इस शानदार गज़ल के लिए आपको बधाई तो दे ही सकता हूं। और जो मुझे सबसे अच्छा शे’र लगा उसे कोट करना चाहूंगा ...
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
और पानी से भी हम जले.
सही है, हम पानी से जले हैं।
समलैंगिकता विदेशों में मान्य है तो रहे. इस बीमारी को वैध बना कर अपने घर पालना अच्छा नहीं. आपकी चिंता जायज़ है.
ReplyDeleteआग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
सही कहा, सटीक चिंता!!
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
सटीक चिंतन .... विचारणीय ...
समलैंगिकता भले ही कानून वैध है, लेकिन क्या यह सामाजिक द्रष्टि से उचित है
ReplyDeleteविचारणीय अच्छी प्रस्तुति,,,,,,
MY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
ज्वलंत मुद्दे पर सार्थक प्रस्तुति………चिन्तनीय
ReplyDeleteआत्मा से कभी पूछ ले.
ReplyDeleteकौन-सी राह पर तू चले.
Nice.
Please see
"रूहानी इल्म के लिए ज़ाहिरी इल्म भी ज़रूरी है Ruhani ...":
http://sufidarwesh.blogspot.com/2012/05/ruhani-haqiqat.html
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
बहुत खूब.......!
सत्य हैं .....वक्त बदल गया हैं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteलिंक आपका है यहीं, मगर आपको खोजना पड़ेगा!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
समलैंगिक |
ReplyDeleteताप दैहिक |
सुख भौतिक -
कोप दैविक ||
अब तो घर घर
अत्यधिक -
सुह्रुद्जन
होंगे दिक् ||
ठोकरें-ठोकरें हर क़दम,
ReplyDeleteज़िंदगी के यही मर्हले.
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
और पानी से भी हम जले.
छोटी बहर की ज़मीनी ग़ज़ल अपने समय के यथार्थ को झेलती देखती ....अवश .
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
वाह कुसुमेश जी! इस दौर का समूचा दर्द इस एक शेर में सिमटा हुआ है ! आपकी लेखनी का जवाब नहीं !
ग़ज़ल का कोई भी शेर बेज़बा नहीं हैं !
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
बहुत सार्थक लिखा है ...
पश्चिम से प्रभावित हम अपनी पहचान ...अपनी सभ्यता खो रहे हैं ...!!
उपयोगी सन्देश देती रचना !
ReplyDeleteमेरी दो लाइन आपको समर्पित
ReplyDeleteसंसार की रीतें बहुत हैं पुरानी
जीना हमें हैं नहीं उन्हें दुहरानी
किन्तु न तोड़ें घर की दीवारें
मात्र हम पाटें सामाजिक दरारें
aapne bahut jwalant mudda apni rachnamein uthaya haai ....sarthak bhav
ReplyDeleteइंसान ने प्रकृति के साथ-साथ अपनी काया के साथ भी खिलवाड़ किया है..
ReplyDeleteआग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
बहुत ही सार्थक एवं सामयिक प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद ।
आग ने भी जलाया 'कुँवर'
ReplyDeleteऔर पानी से भी हम जले.
भारतीय संस्कृति को तार तार कर दिया है ऐसे लोगों ने और प्रशासन ने कालिख पोत के रख दी है ....आपने इस ज्वलंत मुद्दे पर अच्छा लिखा
परदेशी भारत से अच्छाई सीखने को आतुर हैं और हम निरे मुर्ख वहां की गंदगी को अपने माथे पर सजा रहे हैं....
ReplyDeleteSamajh me nahee aata,kya sahee hai aur kya galat!
ReplyDeleteबहुत खूब..
ReplyDeleteउफ़ अदालत के ये फैसले...
ReplyDeleteजायज़ है आपकी चिंता... पश्चिमी हमारी सभ्यता की झुक रहे हैं और हम उनकी बीमारी को अपना रहे हैं, बड़ा अजीब लगता है...
बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति...
ReplyDeleteआप की चिंता जायज है..पश्चिमी हमारी सभ्यता को धुन की तरह चाट रही है और हम सिर्फ देख रहे हैं....सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteपश्चिमी तर्ज़ पर देश में...
ReplyDeleteहल हुए हैं सभी मसअले...
घर की तो साहब बस मूंछें ही मूंछें हैं...सारा कानून दुनिया का उतार डाला...पर अमलीजामा पहनाने में फिसड्डी रह गये...कम शब्दों में गहरे तीर...
पश्चिमी तर्ज़ पर देश में,
ReplyDeleteहल हुए हैं सभी मसअले
Waah..... Bahut Badhiya
सार्थक सन्देश देती हुई छोटी भर की बड़ी ग़ज़ल .सुन्दर अलफ़ाज़ मन में उतर जातें हैं ,कुशुमेश जब कोई ग़ज़ल सुनाते हैं .बधाई .
ReplyDeleteपश्चिमी तर्ज़ पर देश में,
ReplyDeleteहल हुए हैं सभी मसअले
....बहुत सच....बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...
पश्चिमी तर्ज़ पर देश में,
ReplyDeleteहल हुए हैं सभी मसअले ...
कडुवा सच है ये आज की भारत का ... पर सच तो यही है की हम सब पाश्चात्य होते जा रहे हैं ...
बहुत ही प्रभावी लेखन ..
बहेतरीन और सही फ़रमाया आपने प्रगति के नाम पर धरातल में जा रहे है हम|
ReplyDeleteसंस्कृति का विनाश- क्या होगा इस देश का ?
ठोकरें-ठोकरें हर क़दम,
ReplyDeleteज़िंदगी के यही मर्हले.
satik rachna .....
जिस्म की जो भूख थी,विकृत हुई
ReplyDeleteजी नहीं लगता,चलो अब चल चलें
बदलते समय की बदलती दास्तां।
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