हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें / उतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से
कुँवर कुसुमेश
आकर चले गए तमाम इस जहान से,
इठला रहा है वक़्त मगर इत्मिनान से.
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
उठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
हैरत है देख देख के खंजर की तश्नगी
अब तो खुदा के वास्ते निकले न म्यान से.
हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
उतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.
ये वक़्त है बेइंतिहा ताक़त है इसके पास,
लड़ना पड़ेगा फिर भी इसी पहलवान से,
माना क़दम क़दम पे हैं दुश्वारियाँ 'कुँवर',
डरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से.
........
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
ReplyDeleteउठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
आपकी ग़ज़ल में बहुत कुछ सोचने को रहता है। इस बार भी है।
हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
ReplyDeleteउतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.
bahut hi badhiya lines...
बहुत अच्छी ग़ज़ल है कुसुमेश जी...
ReplyDeleteग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
उठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
अकसर ऐसा ही होता है...सच्चा सा शेर बहुत प्यारा लगा.
माना क़दम क़दम पे हैं दुश्वारियाँ 'कुँवर',
डरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से.
सही कहा है...वो अपनी ग़ज़ल का मतला है न-
मुश्किल ये दौर काट ज़रा इत्मिनान में
होती है कामयाबी नेहां इम्तहान में.
आकर चले गए तमाम इस जहान से,
ReplyDeleteइठला रहा है वक़्त मगर इत्मिनान से....
पहली दो पंक्तिया ही कमाल की है ...
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
उठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
बहुत खूब ....
माना क़दम क़दम पे हैं दुश्वारियाँ 'कुँवर',
डरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से.
वाह ...
उम्दा प्रस्तुति कुंवर जी ....
माना क़दम क़दम पे हैं दुश्वारियाँ 'कुँवर',
ReplyDeleteडरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से.
बेहतरीन ग़ज़ल कुंवर साहब.
5/10
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट
ठीक-ठाक ग़ज़ल सामने आई है
दूसरा और चौथा शेर दमदार है
हर परिस्थिति में आगे बढ़ते रहने और वक्त पड़ने पर धारा के विरूद्ध बहने का भी साहस देती एक प्रेरणादायक प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
ReplyDeleteउठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
पहली बात ..मेरे ब्लॉग पर आने के लिए ..धन्यवाद
आपने मुझे सुझाब दिया इसके लिए ..आभार
अब आपको कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा , अगर फिर भी कोई गलती आपके सामने आती है तो जरुर बताइएगा....शुक्रिया
बाकि आपने जो ग़ज़ल लिखी है ..काफी हद तक लाजबाब है
आदरणीय कुसुमेश जी,
ReplyDeleteआप के ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ ! बहुत दिनों बाद एक मुक्कमल ग़ज़ल पढ़ने को मिली ! हर शेर लाज़बाब है!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
ReplyDeleteउतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.
उम्दा प्रस्तुति...... लाजबाब
हैरत है देख देख के खंजर की तश्नगी
ReplyDeleteअब तो खुदा के वास्ते निकले न म्यान से.
हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
उतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.
माना क़दम क़दम पे हैं दुश्वारियाँ 'कुँवर',
डरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से.
बहुत सुन्दर गज़ल है सार्थक सनेदेश देते ये अशअर बहुत अच्छे लगे। धन्यवाद।
हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
ReplyDeleteउतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से ...
बहुत खूब ... गज़ब के शेर निकल कर आये हैं ... ये शेर तो कमल का है ... लाजवाब ..
आकर चले गए तमाम इस जहान से,
ReplyDeleteइठला रहा है वक़्त मगर इत्मिनान से.
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
उठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से.
लाजवाब ग़ज़ल !
हैरान हूँ कुशुमेश जी अब तक आपके ब्लॉग पर क्यों नहीं आ पाया....
ReplyDeleteकमाल की ग़ज़ल है हुज़ूर......एक सांस में सारे शेर याद से हो गए......
क्या खूब कहा....
हैरत है देख देख के खंजर की तश्नगी
अब तो खुदा के वास्ते निकले न म्यान से.
और
ये वक़्त है बेइंतिहा ताक़त है इसके पास,
लड़ना पड़ेगा फिर भी इसी पहलवान से,
.
ReplyDeleteहाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
उतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से....
Quite motivating !
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हाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
ReplyDeleteउतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.....
बहुत सुन्दर ....
बहुत अच्छी ग़ज़ल है....
ReplyDeleteवाह ! वाह !
बेहतरीन ......मुझे तो हर शेर बेहद पसंद आया .
ReplyDeleteसार्थक सोच को दिशा देती ग़ज़ल.. पहला शेर सबसे सुन्दर, सशक्त...
ReplyDeletesunder rachna.
ReplyDeleteकुसुमेश जी, बहुत प्यारी गजल कही है आपने।
ReplyDelete---------
मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।
डरना नहीं है फिर भी किसी इम्तहान से....बहुत अच्छी ग़ज़ल है कुसुमेश जी.... हर शेर बेहद सुन्दर है.
ReplyDeleteहाथों में आपके है बनायें या बिगाड़ें,
ReplyDeleteउतरेगा फ़रिश्ता न कोई आसमान से.
kya baat kahi hai, katu satya
आकर चले गए तमाम इस जहान से,
ReplyDeleteइठला रहा है वक़्त मगर इत्मिनान से।
ग़ैरों के घर की आग बुझाने में जो लगा,
उठने लगा धुवाँ है उसी के मकान से।
बेहतरीन ग़ज़ल...हर शे‘र उम्दा है...बधाई कुसुमेश जी।
कुसुमेश जी।
ReplyDeleteनमस्कार !
बहुत समय बाद आपके यहां पहुंचा हूं , पुरानी कई पोस्ट्स भी पढ़ी हैं अभी ।
… प्रस्तुत बेहतरीन ग़ज़ल…
आप स्वस्थ , सुखी , प्रसन्न और दीर्घायु हों , हार्दिक शुभकामनाएं हैं …
संजय भास्कर