"जल"
कुँवर कुसुमेश
विषमय होता जा रहा , सरिताओं का नीर.
लेकिन सुनता है नहीं,कोई इनकी पीर.
नदियाँ पर्वत की बहें,हर पल सिल्ट समेत.
यहाँ सिल्ट का अर्थ है,पत्थर, बजरी, रेत .
यही सिल्ट मैदान में,बाधित करे बहाव.
दूषित जल का मुख्य है,कारण जल ठहराव.
दूषित जल से यदि मरे,नित्य समुद्री जीव.
पूरे पर्यावरण की,हिल जायेगी नीव.
जलाभाव से मच रहा,चंहु दिशि हाहाकार.
लगातार धटने लगा,भू का जल भण्डार.
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
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बहुत बढ़िया लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
खूबसूरत दोहों के माध्यम से बहुत ही अच्छा सन्देश दिया है आपने, आशा है अधिकाधिक लोग इस पढ़कर जागरूक होंगे और प्रकृति के संगरक्षण में अपना योगदान देंगे
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
Jaante sabhee hain....swarth wash khilwaad kiye bina baaz nahee aate!
Sundar rachana!
प्रकृति के प्रति आपके समर्पित भावों को सलाम करता हूं।
ReplyDeleteसार्थक चिंता!! साधुवाद
विषमय होता जा रहा , सरिताओं का नीर.
ReplyDeleteलेकिन सुनता है नहीं,कोई इनकी पीर.
बहुत ही अच्छा सन्देश दिया है आपने अपनी इस रचना द्वारा, प्रकृति के संरक्षण में ही हमारा भी हित निहित है....
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
iske liye hai sirf manav zimmedaar
पर्यावरण को बिगाडनेमे मनुष्य ही जिम्मेवार है!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ........
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
प्राकृतिक आपदाओं के पीछे व्यक्ति की संकीर्ण सोच और अंधाधंध विकास की होड़ का हाथ है ..लेकिन इंसान इस बात को नहीं समझ पाया है ...आपने बहुत विचारणीय विषय पर अपनी सार्थक लेखनी चलाई है ...आपका आभार
प्रकृति के साथ खिलवाड का अंजाम तो खरतनाक होगा ही।
ReplyDeleteआपने बहुत सुन्दर शब्दो मे इस बात को प्रस्तुत किया है
सुन्दर एवं सार्थक रचना के लिए आभार
bahut achcha likhe hain.
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़. ...
पर्यावरण पर बहुत सुन्दर, चिन्तापरक दोहे...
इतने सारगर्भित दोहों के लिए हार्दिक बधाई...
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
सार्थक पोस्ट पर्यावरण बचाने की एक मुहीम , जानकारी से भरी स्वागत योग्य
khoobsurat dohe
ReplyDeleteबिलकुल सही..चिंता का बिषय
ReplyDeleteजल दिवस पर बेहतरीन प्रस्तुति ...
ReplyDeleteप्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिये जागृत करती रचना
ReplyDeleteपर्यावरण पर बहुत सुन्दर प्रस्तुति अच्छी लगी. मेरा पसंदीदा विषय है.कभी समय निकाल कर मेरी पुँरानी कविता "वर्षा जल संचयन" भी देखिएगा.आभार
ReplyDeleteआदरणीय कुसुमेश जी
ReplyDeleteसादर नमस्कार !
आज जल दिवस पर अच्छी रचना दी आपने -
जलाभाव से मच रहा, चहुं दिशि हाहाकार ।
लगातार घटने लगा, भू का जल भण्डार ॥
कहीं पड़ा सूखा कभी, कहीं आ गई बाढ़ ।
ज़रा सोचिये प्रकृति क्यों, करती ये खिलवाड़ ?!
जल संरक्षण के प्रति जागरुक होने की प्रेरणा देते बहुत अच्छे दोहे हैं … बधाई !
सलिल वारि अंभ नीर जल पानी अमृत नाम !
जल जीवनदाता ; इसे शत-शत करो प्रणाम !!
है सीमित , जल शुद्ध ; कर बुद्धि से उपभोग !
वर्षा-जल एकत्र कर ! मणि-कांचन संयोग !!
भारत भारती वैभवं
पर आपका स्वागत है , पधारिएगा
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
कहीं पड़ा सूखा कभी, कहीं आ गई बाढ़ ।
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों, करती ये खिलवाड़ ?!
बहुत सुंदर सवाल किया आप ने... सभी जबाब जान कर भी अनजान हे जी
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
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अच्छा अंदाज़ और सही मुद्दा
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा प्रति जागृत और सार्थक आव्हान करती रचना ......
बहुत सही, सार्थक और सामयिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteविश्व जल दिवस पर संदेश देती यह रचना बहुत ही अच्छी लगी।
काफी समय से इस बात को लेकर चर्चा भी है कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर ही होगा।
बहुत सुन्दर रोचक सार्थक शिक्षाप्रद प्र्स्तुति ।
ReplyDeletesir.. hamne aaj aphli bar apka blog pada bhut hi accha likha hai apne..apke liye koi comments karu is kabil main khud nhi samjhtti.. kyu ki apki rachnaao ke samne main abhi kuch nhi hu.. apko bhut-bhut dhanyvaad ki apne meri kavita ki sarahna ki... apki har rachna khud me bhut samete hue hai...
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
समय के क्षितिज पर वही साहित्य सूरज की तरह चमकता है जिसमें समाज को देने के लिए कुछ होता है ,आपका साहित्य- सृजन मानवीय संवेदनाओं की पीड़ा को रखांकित ही नहीं करता बल्कि उसे जीता भी है , समाज को सचेत करता है ,उसे झकझोर कर जगाता है !
कुसुमेश जी,आप जो भी लिखते हैं एक मकसद के साथ लिखते हैं ! आपकी भावनाओं में शब्द ढल कर धन्य हो जाते हैं !
मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार करें !
सबी दोहे बहुत उत्तम और सार्थक है♥3
ReplyDeleteआपने बहुत सार्थक सन्देश दिया है ,परन्तु संभवतः धनिकों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा उनकी कारें,मोटर साईकिलें धड्दले से पानी की बर्बादी करते हुए धुलती रहेंगी.एक और गरीब बस्ती के लोग प्यासे भटकते रहेंगे और अमीर सड़कों पर पानी बहाते रहेंगे.लोगों की समष्टि वादी सोच जब तक न बने तब तक सुधार नहीं होगा.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति ।
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ReplyDeleteइस सार्थक रचना के लिए आपकी जितनी प्रशंशा की जाय कम है...पर्यावरण की ज्वलंत समस्या पर बहुत ख़ूबसूरती से टिपण्णी की है आपने...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
बहुत अच्छी रचना ...वाकई मे अभी से कुछ किया न गया तो बहुत खराब हालात होने वाले हैं......
ReplyDeleteशुभकामनाये
मंजुला
गागर में सागर सा भर गया है जैसे।
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्या ख्याa।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
pata sabhi ko hai par kuch hi log kar rahe hain.. ab dekhna yah hai ki hum aur aap kya kar rahe hain.. sirf likh rahe hain ya waakai mein kuch saarthak bhi kar rahe hain..
ReplyDeleteachchhi soch aur achchhe kaarya ka milan ho.. yahi kaamna hai..
aabhaar
सोते को जगाया जा सकता है लेकिन जागते को कौन जगाये ? सब-कुछ जानते बूझते हुए भी मनुष्य , प्रकृति के साथ के साथ खिलवाड़ कर रहा है ।
ReplyDeleteजल संचय अगर आज नहीं किया तो महाप्रलय की परिस्थितियों के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होगा
ReplyDeleteप्रकृति के प्रति आपके प्रेम को दर्शाती यह कविता हमें जागने को कह रही है... सुन्दर रचना ! जल दिवस की शुभकामना !
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
Sarthak rachna ke liye badhai sweekar karein........
aapke ander kahi na kahi desh prem ki jo bhavna chipi hai wo is rachna ke madhayam se bahut hi sasakt tarike se bahar aayi hai ..........badhai
कुसुमेश सर वाकई लाजवाब गजल है.एक नए अर्थ की तलाश करती रचना.
ReplyDeleteबहुत सार्थक सन्देश दिया है सुन्दर एवं सार्थक रचना के लिए आभार
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़।
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़।
दोहों के माध्यम से सार्थक संदेश दिया है आपने।
इन प्रेरक पंक्तियों के लिए धन्यवाद कुसुमेश जी।
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविषमय होता जा रहा , सरिताओं का नीर.
ReplyDeleteलेकिन सुनता है नहीं,कोई इनकी पीर.
sunder dohe
नदियाँ पर्वत की बहें,हर पल सिल्ट समेत.
ReplyDeleteयहाँ सिल्ट का अर्थ है,पत्थर, बजरी, रेत .
सार्थक संदेश देती अच्छी रचना ....
सही कहा आपने...
ReplyDeleteधरम-नियम से रहिये, जल न कीजिये व्यर्थ !
प्रकृति चले है नियम से,मानव भी है समर्थ !!
सुन्दर रचना....
सच है ये विडम्बना . हम अभी भी चेते नहीं तो बूंद बूंद के लिए तरसेंगे .
ReplyDeleteआपके दोहे पढकर आनंद आ गया ... विज्ञानं और पर्यावरण के बारे में आप सहज और सुन्दर ढंग से लिखे हैं .. जल जीवन है ... इसे ढंग से इस्तमाल करना हर इंसान का फर्ज है ..
ReplyDeleteप्रकृति के प्रति गहरे भाव को व्यक्त करती रचना | प्रकृति भी तो सृष्टि की ही रचना है उसमे भी जान है वो जीती है तो भी निस्वार्थ भाव से पर अगर हम उसके प्रति प्यार भाव भूल जायेंगे उसकी भावनाओं को नहीं समझेंगे और उससे ये समझ कर खिलवाड़ करते रहेंगे तो वो अपना ये रूप तो हर बार दिखाएगी और इन्सान को सतर्क करती ही रहेगी अब तो संभल जाओ दोस्तों की प्रकृति से ज्यादा छेड़ - छाड़ घातक हो सकती है |
ReplyDeleteआप बहुत खुबसूरत लिखते हो दोस्त |
बहुत खुबसूरत रचना |
आपके प्रयास को शत शत नमन। बेहतरीन रचना। आभार।
ReplyDeleteवाह वाह के कहे आपके शब्दों के बारे में जीतन कहे उतन कम ही है | अति सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद् आपको असी पोस्ट करने के लिए
कभी फुरसत मिले तो मेरे बलों पे आये
दिनेश पारीक
paryawaran ke prati aapki chinta is kavita me chhalak rahi hai.. sahitya kee sarthakta bhi is se spasht ho rahi hai.. aaj ke samay me yah swar mook hai hindi kavita me...
ReplyDeleteप्रकृत के प्रति अगाध प्रेम को दर्शाती यह कविता जागरूकता कि प्रेरक है
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
जलाभाव से मच रहा,चंहु दिशि हाहाकार.
ReplyDeleteलगातार धटने लगा,भू का जल भण्डार.
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
"जल ही जीवन है" या "पानी बचाएं खुशहाली लायें" जैसे स्लोगनों से काम नहीं चलेगा. वास्तव में हमें सचेत होना पड़ेगा.
बहुत सार्थक लिखा है ।
ReplyDeleteकहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
aapki rachnaayon mein aap ka prakriti prem mukhrit hota hai.
sandeshparak sundar rachna ke liye aabhaar.
aadarniy sir
ReplyDeleteitna kuchh hone ke bavjuud abhi bhi ham paani ki ahmiyat ko nahi samajh rahen hain
gar paani jo na mile to machta hahakar
mil jaata hai jab paani to bahayen beshumaar .
bahue hi prabhavpurn avamsarthak sandesh deti prastuti.
dhanyvaad
poonam
Kusumesh jee, apki rachana hame prerit karti hai, jagati hai bsharte ham jaage to na ..... bahut satik rachana...aabhar
ReplyDeleteएक बढ़िया सामयिक एवं आवश्यक रचना के लिए बधाई आपको !
ReplyDeleteजल है तो जान है !
ReplyDeleteइंसान क्यों करता गुमान है !
बेहद सुन्दर और सटीक मार्मिक कविता !
कहीं पड़ा सूखा कभी,कहीं आ गई बाढ़.
ReplyDeleteज़रा सोचिये प्रकृति क्यों,करती ये खिलवाड़.
एक बढ़िया रचना के लिए बधाई आपको !
बेहद सुन्दर और सटीक मार्मिक कविता| धन्यवाद|
ReplyDeleteजागरूक करती आपकी ये रचना बेहद प्रभावशाली है.
ReplyDeleteसच्चाई से ओतप्रोत इस रचना के लिए आपको बधाई.
बहुत ही बढ़िया दोहे... जागरूक सोच...
ReplyDeleteये पढ़कर तो अकाल आ ही जानी चाहिए इंसान को... यदि वो इंसान हुआ तो...
aapki kavitayen prakruti ke kitane kareeb hoti hai.....bahut achchha lagta hai padh kar....
ReplyDeletebahut saarthak rachna.......
ReplyDeletejal bin sab soon........
nissandeh, prakriti hame itna deti hai aur badle hum prakriti ka dohan karte rahte hain.....
ReplyDeleteaao sab mil kar waada karen, prakriti ko pradushan mukt banaaye taaki aane wali peedhiyan hame kosen nahi...........
बहुत सुन्दर दोहे ... और एक बहुत उपयोगी सीख के साथ ...जल की महत्ता को बताती हुवी आपकी रचना बहुत पसंद आई...
ReplyDeleteतथा
अमृतरस ब्लॉग
भी देखिएगा | सादर
दूषित जल से यदि मरे,नित्य समुद्री जीव.
ReplyDeleteपूरे पर्यावरण की,हिल जायेगी नीव....
दोहों के माध्यम से लाजवाब संदेश दिया है आपने ... पर लोग जागें तभी न ... कहीं देर न हो जाए ...
कुसुमेश जी ,
ReplyDeleteआपने सुन्दर दोहों के माध्यम से जो सार्थक , जीवनोपयोगी सन्देश दिया है , अति प्रशंसनीय और लीक से हटकर है |
पर्यावरणी दोहों के लिए आपको आपके फ़िक्र को सलाम ।
ReplyDeleteमहानगर ने फैंक दी मौसम की संदूक ,
पेड़ परिंदों से हुआ कितना बुरा सुलूक ।
ये तेजाबी बारिशें ,बिजली घर की राख ,
एक दिन होगा भू -पटल वार्णा-वर्त की लाख ।
महानगर के हाथ पे गुल होतें हैं पेड़ ,
सुषमा तीनों लोक की कुल होतें हैं पेड़ ।
पेड़ पांडवों पर हुआ जब जब अत्याचार ,
ढांप लिए वट वृक्ष ने तब तब दृग के द्वार .