कुँवर कुसुमेश
बाल श्रमिक बढ़ने लगे,प्रतिदिन कई हज़ार.
इनके जीवन की लगे,नैय्या कैसे पार ?
नन्हे-मुन्नों का उठा,जीवन से विश्वास.
होटल में बच्चे दिखे,धोते हुए गिलास.
कलयुग में क्या है यही,क़ुदरत को मंज़ूर.
बचपन से ही बन रहे ,कुछ बंधुवा मजदूर.
थकी थकी आँखे कहीं,धंसे धंसे से गाल.
बिना कहे ही कह रहे,अपना पूरा हाल.
पतझड़ है तो क्या हुआ,नहीं छोडिये आस.
मन कहता है एक दिन,आयेगा मधुमास.
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