Wednesday, October 17, 2012

तस्वीरें




कुँवर कुसुमेश 

दिखाने को तो दिखलाती रही दीवार तस्वीरें .
मगर तस्वीर लगती हैं तो बस दो-चार तस्वीरें .

पकड़ जायेगा मुजरिम छुप न पायेगा बहुत दिन तक,
बराबर छापता जाये अगर अखबार तस्वीरें .

हमारी सभ्यता को बन के दीमक चाटने वाली,
बदन दिखला रहीं खुलकर सरे-बाज़ार तस्वीरें .

घरों से देवताओं- देवियों के चित्र ग़ायब हैं,
घरों में अब नज़र आती हैं कुछ बेकार तस्वीरें .

शहीदों की वो तस्वीरें जिन्हें हम सर झुकाते हैं,
समय की भेंट चढ़ जायें न वो दमदार तस्वीरें .

पड़े जिस पर नज़र तो फख्र से सर और ऊँचा हो,
करो ऐसी 'कुँवर'  हर मोड़ पर तैयार तस्वीरें .
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Wednesday, October 10, 2012

पुस्तक परिचय


                                                
पुस्तक का नाम        :   मेरे भीतर महक रहा है(ग़ज़ल संग्रह)        ग़ज़लकार : मनोज अबोध 
प्रकाशक                   : हिंदी साहित्य निकेतन,बिजनौर                    मूल्य  :150/-
प्रकाशन वर्ष             :                 2012                                      पृष्ठ   :96

पिछले लगभग तीन दशकों के दौरान हिंदी में ग़ज़ल के कई संग्रह नज़र से गुज़रे।हिंदी में ग़ज़ल कहने वालों की संख्या में न सिर्फ ज़बरदस्त वृद्धि हुई है बल्कि बहुत अच्छे ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं, और हो रहे हैं। इसी श्रृंखला में जनाब मनोज अबोध जी का ताज़ा-तरीन ग़ज़ल संग्रह,मेरे भीतर महक रहा है, मेरे हाथों में है।यह इनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह है।वर्ष 2000 में प्रकाशित इनका पहला ग़ज़ल संग्रह,गुलमुहर की छाँव में,काव्य जगत में हाथों-हाथ लिया गया।
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह,मेरे भीतर महक रहा है, में मनोज जी ने ग़ज़ल के रिवायती अंदाज़ को बरक़रार रखते हुए रूमानी अशआर कहे हैं, तो मौजूदा हालात पर भी क़लम बखूबी चलाई है।
रूमानी अंदाज़ में शेर कहते हुए मनोज कहते हैं कि :-
कुछ वो पागल है,कुछ दीवाना भी।
उसको जाना मगर न जाना भी।
आज पलकों पे होठ भी रख दो,
आज मौसम है कुछ सुहाना भी।- - - - - -  पृष्ठ-27
रूमानी अशआर कहते वक़्त मनोज अबोध की सादगी भी क़ाबिले-तारीफ है।देखिये :-
प्रीत जब बेहिसाब कर डाली।
जिंदगी कामयाब कर डाली।
बिन तुम्हारे जिया नहीं जाता,
तुमने आदत खराब कर डाली। - - - - - - -पृष्ठ-43
मुश्किलों से न घबराते हुए अपना आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए ग़ज़लकार  कहता है कि :-
तमाम मुश्किलों के बाद भी बचेगा ही।
तेरे नसीब में जो है वो फिर मिलेगा ही।---पृष्ठ-26
हालाँकि एक शेर में आगाह भी करते हुए चलते है कि :-
फूल ही फूल हों मुमकिन है भला कैसे ये ?
वक़्त के हाथ में तलवार भी हो सकती है।- -पृष्ठ-93
बहरे-मुतदारिक सालिम में कही गई ग़ज़ल-32 के दूसरे शेर का मिसरा-ए-सानी "बिटिया जब से बड़ी हो गई" ताक़ीदे-लफ्ज़ी की गिरफ़्त में है और हल्की-सी तब्दीली मांग रहा है।देखिये :- 
छाँव क़द से बड़ी हो गई ।
एक उलझन खड़ी हो गई।
फूल घर में बिखरने लगे
बिटिया जब से बड़ी हो गई। - - - -  - - - - पृष्ठ-50
इसे यूँ किया जा सकता है:-
फूल घर में बिखरने लगे
जब से बिटिया बड़ी हो गई। 
संग्रह की छपाई बेहतरीन,मुख पृष्ठ आकर्षक और पुस्तक संग्रहणीय है। मनोज अबोध जी के अशआर पढ़ते ही ज़ेहन नशीन हो जाते हैं। मैं दुआगो हूँ कि शायरी के इस खूबसूरत सफ़र पर मनोज जी ताउम्र गामज़न रहें और इसी तरह अपने उम्दा अशआर से अपने चाहने वालों को मह्ज़ूज़ करते रहें।

कुँवर कुसुमेश 
4/738 विकास नगर,लखनऊ-226022
मोबा:09415518546

Monday, October 1, 2012

गाँधी जी


छोड़ गये तुम सब कुछ जैसा गाँधी जी.
  
आज नहीं है वो सब वैसा गाँधी जी.

मानवता को कुचल दिया है पैसे ने,

सब से बढ़ करके है पैसा गाँधी जी.

                         -कुँवर कुसुमेश