Sunday, December 2, 2012
Monday, November 12, 2012
Friday, November 2, 2012
उफ़......................
-कुँवर कुसुमेश
उधर अपनी सरकार मंहगाई वाली .
इधर पास आने लगी है दिवाली .
मियाँ , गैस ने तो नरक कर दिया है,
कई घर में देखो सिलिंडर है खाली .
समझ में मेरे आज तक है न आया,
कि ये किस जनम की कसर है निकाली .
यही होगा इस देश में जब चुनोगे-
इलेक्शन में हर बार गुंडे-मवाली .
'कुँवर' की दुआ आप सब के लिए है,
रहे घर में बरकत,मिटे तंगहाली .
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Wednesday, October 17, 2012
तस्वीरें
कुँवर कुसुमेश
दिखाने को तो दिखलाती रही दीवार तस्वीरें .
मगर तस्वीर लगती हैं तो बस दो-चार तस्वीरें .
पकड़ जायेगा मुजरिम छुप न पायेगा बहुत दिन तक,
बराबर छापता जाये अगर अखबार तस्वीरें .
हमारी सभ्यता को बन के दीमक चाटने वाली,
बदन दिखला रहीं खुलकर सरे-बाज़ार तस्वीरें .
घरों से देवताओं- देवियों के चित्र ग़ायब हैं,
घरों में अब नज़र आती हैं कुछ बेकार तस्वीरें .
शहीदों की वो तस्वीरें जिन्हें हम सर झुकाते हैं,
समय की भेंट चढ़ जायें न वो दमदार तस्वीरें .
पड़े जिस पर नज़र तो फख्र से सर और ऊँचा हो,
करो ऐसी 'कुँवर' हर मोड़ पर तैयार तस्वीरें .
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Wednesday, October 10, 2012
पुस्तक परिचय
पुस्तक का नाम : मेरे भीतर महक रहा है(ग़ज़ल संग्रह) ग़ज़लकार : मनोज अबोध
प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन,बिजनौर मूल्य :150/-
प्रकाशन वर्ष : 2012 पृष्ठ :96
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह,मेरे भीतर महक रहा है, में मनोज जी ने ग़ज़ल के रिवायती अंदाज़ को बरक़रार रखते हुए रूमानी अशआर कहे हैं, तो मौजूदा हालात पर भी क़लम बखूबी चलाई है।
रूमानी अंदाज़ में शेर कहते हुए मनोज कहते हैं कि :-
कुछ वो पागल है,कुछ दीवाना भी।
उसको जाना मगर न जाना भी।
आज पलकों पे होठ भी रख दो,
आज मौसम है कुछ सुहाना भी।- - - - - - पृष्ठ-27
रूमानी अशआर कहते वक़्त मनोज अबोध की सादगी भी क़ाबिले-तारीफ है।देखिये :-
प्रीत जब बेहिसाब कर डाली।
जिंदगी कामयाब कर डाली।
बिन तुम्हारे जिया नहीं जाता,
तुमने आदत खराब कर डाली। - - - - - - -पृष्ठ-43
मुश्किलों से न घबराते हुए अपना आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए ग़ज़लकार कहता है कि :-
तमाम मुश्किलों के बाद भी बचेगा ही।
तेरे नसीब में जो है वो फिर मिलेगा ही।---पृष्ठ-26
हालाँकि एक शेर में आगाह भी करते हुए चलते है कि :-
फूल ही फूल हों मुमकिन है भला कैसे ये ?
वक़्त के हाथ में तलवार भी हो सकती है।- -पृष्ठ-93
बहरे-मुतदारिक सालिम में कही गई ग़ज़ल-32 के दूसरे शेर का मिसरा-ए-सानी "बिटिया जब से बड़ी हो गई" ताक़ीदे-लफ्ज़ी की गिरफ़्त में है और हल्की-सी तब्दीली मांग रहा है।देखिये :-
छाँव क़द से बड़ी हो गई ।
एक उलझन खड़ी हो गई।
फूल घर में बिखरने लगे
बिटिया जब से बड़ी हो गई। - - - - - - - - पृष्ठ-50
इसे यूँ किया जा सकता है:-
फूल घर में बिखरने लगे
जब से बिटिया बड़ी हो गई।
संग्रह की छपाई बेहतरीन,मुख पृष्ठ आकर्षक और पुस्तक संग्रहणीय है। मनोज अबोध जी के अशआर पढ़ते ही ज़ेहन नशीन हो जाते हैं। मैं दुआगो हूँ कि शायरी के इस खूबसूरत सफ़र पर मनोज जी ताउम्र गामज़न रहें और इसी तरह अपने उम्दा अशआर से अपने चाहने वालों को मह्ज़ूज़ करते रहें।
कुँवर कुसुमेश
4/738 विकास नगर,लखनऊ-226022
मोबा:09415518546
Monday, October 1, 2012
Thursday, September 13, 2012
दिखावा सब करते हैं....................
हिंदी हिंदी चीखता,रहता पूरा देश.
हिंदीमय अब तक मगर,हुआ नहीं परिवेश.
हुआ नहीं परिवेश,दिखावा सब करते हैं.
अंग्रेजी पर लोग ,न जाने क्यों मरते हैं.
निज भाषा सम्मान,करो मत चिंदी चिंदी.
कभी न वरना माफ़,करेगी तुमको हिंदी.
-कुँवर कुसुमेश
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हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाये
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चिंदी चिंदी=टुकड़े टुकड़े
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